नेल पॉलिश 2021 में रिलीज़ होने वाली पहली हिन्दी डिजिटल फ़िल्म है। फ़िल्म में तीन चीजें हैं। एक क्राइम, दूसरा अदालतें और क़ानूनी दांव पेंच और तीसरा साइकोलॉजी है। फ़िल्म का सारा का सारा भार इन्हीं तीन मुद्दों पर है। अदालतों में क़ानूनी दांव पेंच किस तरह से चले जाते हैं। इन सब बातों का सहारा लेकर लेखक और निर्देशक कुछ और ही कहना चाहते हैं।
फ़िल्म की कहानी बहुत ही साधारण तरीके से शुरू होती है। वीर (मानव कौल) एक शहर में बच्चों को खेल की कोचिंग कराते हैं। उसी शहर में मजदूर लोगों के बच्चे गायब हो रहे हैं। पुलिस दो बच्चों की अधजली लाश की तहकीक़ात करते हुए एक तयख़ाने तक पहुंचती है। उस तयख़ाने में जंज़ीरों से बंधा एक बच्चा मिलता है।
पुलिस वीर को बच्चों के बलात्कार और हत्या के मामले में जेल भेज देती है। यह राजनैतिक मुद्दा बन जाता है। विपक्ष वीर की तरफ से अपने वकील सिद्धार्थ जयसिंह (अर्जुन रामपाल) को भेजता है। अर्जुन रामपाल पहले तो केस में पकड़ बनाता है लेकिन मरे हुए बच्चे के मुंह में पाये ख़ून से जब वीर का डी.एन.ए मैच करता है तो बाजी पलट जाती है।
वीर उसी रात जेल में किसी दबंग गुंडे की आंख फोड़ देता है। उसे बुरी तरह पीटा जाता है जिसके कारण उसे हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ता है। वहां लेकिन जब उसे होश आता है तो सबके होश उड़ जाते हैं। वीर अपना नाम चारू रेना बताने लगता है। उसकी चाल ढ़ाल भी सब महिलाओं जैसी हो जाती है। उसे जब दोबारा जेल भेजा जाता है तो वहां उसके साथ बलात्कार होता है।
यहां से फ़िल्म में एक नया मोड़ आता है। वीर को देखकर पहले तो सबको लगता है कि वो नाटक कर रहा है। उसके बाद जब उसके बताये फोन नम्बर पर कॉल की जाती है तो पता चलता है कि सच में कोई चारू रेना थी। वीर उस समय अंडर कवर ऑफिसर था। उसने उसे अपने मकसद के लिए इस्तेमाल किया और फिर उसकी हत्या कर दी थी। यहां से खेल इतना क़ानूनी और मनोवैज्ञानिक हो जाता है कि फ़िल्म का पूरा मिजाज़ ही बदल जाता है।
फ़िल्म दर्शक को अंत तक बांधे रखती है।
फ़िल्म की समय सीमा करीब 2 घंटा 8 मिनट है। इन दो घंटे आठ मिनट के दौरान कहानी कई मोड़ लेती है। हर मोड़ पर जाकर कहानी और ज़्यादा इंटरेस्ट पैदा करती है। कहानी में जब बोरियत सी होने लगती है तभी दर्शक को कुछ ना कुछ ऐसा मिल जाता है जिसके सहारे वो अंत तक बैठा रहता है।
दर्शक सबसे पहले तो इस बात को जानने के लिए बैठा रहता है कि यह शरीफ सा आदमी क़ातिल है कि नहीं है। यह क़ातिल नहीं है तो कौन है? यह बात जब साबित हो जाती है कि बच्चों के क़त्ल से वीर का कुछ तो कनेक्शन है। फिर वीर एक नई आईडेंटिटी में चला जाता है। वीर झूंठ बोल रहा है कि नहीं। इस बात को जानने तक फ़िल्म का अंत हो जाता है।
सबजेक्ट पर रिसर्च अच्छी है
एक तो अदालत में जो क़ानूनी दांव पेंच चल रहे हैं। वह क़ानूनी दायरे में ही लगते हैं। इस तरह के केस में किस तरह से डील किया जाता है काफी अच्छे से दिखाया है। फ़िल्म लिखने वाले ने क़ानून और मनोविज्ञान की अच्छी रिसर्च के बाद लिखा है। एक समय के बाद कहानी जैसे कलीनिक में चली जाती है जहां बहुत सारी साइकलोजिकल बिमारियों पर बात हो रही है। उनसे ट्रीट करने का तरीका भी दिखाया जा रहा है।
उन सीनों को देखकर ऐसा लगता है कि आप किसी डॉक्टर के सामने बैठे हो। वह आपको मनोविज्ञान के बारे में समझा रहा है। पटकथा में जो एक दूसरे से चीजों को जोड़ा गया है वह हर किरदार को मजबूत बनाता जाता है।
मानव कौल के आगे अर्जुन रामपाल भी कम नहीं लगे
फ़िल्म में एक तो लिखने वाले की तारीफ करनी होगी। फ़िल्म को लिखने वाले ने बहुत ही सफाई से लिखा है। लेखक लिखते हुए जजमेंटल होने से बचा है। वह स्पीच देने से भी बचा है। उसने पटकथा को इस तरह लिखा है कि देखने वालों को खुद फैंसला करना होगा कि वह सच को मानना चाहते हैं कि नहीं मानना चाहते हैं।
फ़िल्म में मानव कौल का किरदार ही दमदार है। एक समय के बाद तो कहानी सिर्फ और सिर्फ उनकी होकर रह जाती है। उनके किरदार के कई रूप देखने को मिलते हैं। फ़िल्म में नेरेटर भी वहीं हैं। मरने वाले भी वही हैं और क़ातिल भी वहीं है। वह जिस लड़की को मारते हैं उसी आईडेंटिटी में जाकर बच भी जाते हैं।
मानव कौल ने वीर, रंजीत और अपनी प्रेमिका चारू रेना का किरदार निभाया है। उनके तीनों ही किरदार अलग-अलग नज़र आते हैं। मानव कौल अपनी एक्टिंग से कभी इमोशनल करते हैं तो कभी खुद से ही नफरत करा देते हैं। उनके साथ एक वकील के किरदार में अर्जुन रामपाल की एक्टिंग अपने आस-पास वाले एक्टरों पर भारी पड़ती है। यह बात अलग है कि वीर के किरदार को बढ़ावा देने के कारण उनका किरदार कहानी में अपनी जगह तलाशता रहता है।
देखें ना देंखें?
दर्शक का अपना एक नज़रिया होता है। हर फ़िल्म किसी को अच्छी लग सकती है तो किसी को नहीं लग सकती। यह देखने वाले के अपने इंटरेस्ट के ऊपर है। फ़िल्म में सस्पेंस है, क्राइम है, सायको थ्रिलर है, सामाजिक मुद्दा है, बौधिक स्तर का संवाद है, अच्छी एक्टिंग है। इनमें से अगर कुछ भी आपको पसंद है तो फ़िल्म आपको निराश नहीं करेगी।
निर्देशक: बग्स भार्गव कृष्णा
लेखक: बग्स भार्गव कृष्णा
कलाकार: अर्जुन रामपाल, मानव कौल, रजित कपूर, समरीन कौर।
प्लेटफार्म: जी5