साइलेंस मनोज बाजपेयी की एक और ऐसी फ़िल्म जिसमें उन्होंने पुलिस वाले का किरदार निभाया है। वह अपनी बाकी कई फ़िल्मों की तरह ही इस फ़िल्म में भी एक मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने की कोशिश करते हैं। मनोज बाजपेयी 2 घंटे 16 मिनट की फ़िल्म में एक लड़की के कातिल को खोजने की कोशिश करते हैं। वह क़ातिल जो मरने वाली लड़की के बहुत ही करीब होता है। उस पर किसी का शक भी नहीं होता है। वह आखिर किस तरह से पकड़ा जाता है। यही फ़िल्म की मजबूत पॉइंट है।
कहानी बहुत ही साधारण सी है। कुछ स्टूडेंट को पहाड़ी पर एक लाश मिलती है। वह लाश एक जज़ की बेटी पूजा की है। पूजा को किसने और क्यूं मारा किसी को कुछ पता नहीं है। पूजा के पिता एक ऐसे पुलिस वाले अविनाश वर्मा को इस केस की तहकीकात के लिए बुलाते हैं जो पूरी तरह से सनकी है। वह अपने काम को जुनून की तरह करता है। इसी काम के चलते उसकी पत्नी उसे छोड़कर जा चुकी है। उसकी बेटी भी उसके साथ नहीं रहती है। यह पुलिस वाला कोई और नहीं बल्कि फ़िल्म के हीरो मनोज बाजपेयी हैं।
अविनाश इस केस को अपनी शर्तों पर लेता है कि वो अपने तरीके से ही इसकी तहकीकात करेगा। अविनाश का पहला शक पूजा की दोस्त कविता के पति विधायक खन्ना पर जाता है। पूजा का मर्ड़र जब होता है वह खन्ना के घर पर होती है। उसके मर्ड़र के ठीक कुछ देर बाद खन्ना की पत्नी कविता सीढ़ी से गिरकर कोमा में चली जाती है। अविनाश को पूरा शक होता है कि पूजा का मर्ड़र खन्ना ने ही किया है। खन्ना का किरदार अर्जुन माथुर ने निभाया है।
अविनाश खन्ना के पीछे पड़ा है लेकिन अंत में मालूम होता है कि खन्ना निर्दोष है। पूजा का क़त्ल जिसने किया है वो बहुत ही मासूम है। उसी के परिवार का एक हिस्सा है, जिस पर किसी को शक नहीं होता है। वह क़ातिल कौन है? फ़िल्म देखने पर मालूम होता है।
मनोज बाजपेयी फिर से कोप
मनोज बाजपेयी ने दा फैमली मैन में एक दमदार ऑफिसर की भूमिका निभाकर सबको चोंका दिया था। उनके उस किरदार को हिन्दी फ़िल्मों में बहुत ही कम देखा गया था। इस फ़िल्म में मनोज बाजपेयी कुछ वैसा ही किरदार निभाते नज़र आते हैं। वह एक सनकी पुलिस वाले हैं। वह अपने काम को इतनी शिद्दत से करते हैं कि उसी में रात दिन लगे रहते हैं। वह इसी कारण घर पर अकेले रहते हैं।
मनोज बाजपेयी को टीम के तौर पर कुछ एक्टर और दिए गये हैं। वह उन सबको स्क्रीन पर उतना ही स्पेस देते हैं जितना कि खुद लेते है। उनकी खासियत यही है कि वह अपने से जूनियर कलाकारों के बीच भी कभी अपने किरदार से नहीं भटकते। वह अपने ही किरदार में रहते हैं। यह बात अलग है कि निर्देशक अगर चाहता तो उनका और भी बेहतर इस्तेमाल कर सकता था।
मनोज बाजपेयी के सामने फ़िल्म में अर्जुन माथुर हैं। दोनों ही अच्छे एक्टर हैं। स्क्रीन पर जब इनका सामना होता है तो दोनों की ही एक्टिंग देखने लायक होती है।
मजेदार है कि नहीं?
फ़िल्म मनोरंजन के लिए होती है। उसका पहला काम मनोरंजन करना है। फ़िल्म साइलेंस को अगर इस लिहाज से देखा जाये तो यह एक सस्पेंस थ्रिलर है जो कि एक मर्डर मिस्ट्री से शुरू होती है। निर्देशक का पहला काम था कि 2 घंटे 16 मिनट तक दर्शकों को जोड़े रखना। वह सस्पेंस बनाये रखना जो उसने शुरू मे ही क्रिएट किया है। निर्देशक उसके लिए बीच-बीच में कहानी को कभी इमोशनल करता है तो कभी गैंगस्टरों के बीच ले जाता है।
निर्देशक कभी जानबूझकर एक थ्योरी को दर्शक के दिमाग में डालता है तो फिर उसी को नकार देता है और एक अलग नज़रिए से पूरी घटना को देखता है। कुछ नये-नये किरदारों को कहानी में लाता रहता है। यह बात अलग है कि कई सीन धारावाहिक सी.आई.डी जैसे लगने लगते हैं। मनोज बाजपेयी लेकिन अपनी एक्टिंग के दम पर फ़िल्म में मनोरंजन बनाए रखने की पूरी कोशिश करते हैं।
देखें ना देखें?
फ़िल्म देखने ना देखने की बहुत सी वज़ह होती हैं। कुछ लोग अपने पंसदीदा एक्टर की फ़िल्में कभी नहीं छोड़ते। कुछ लोग अपने पसंदीदा जॉनरा की फ़िल्में देखते ही देखते हैं। कुछ लोग हर नई फ़िल्म देखने के आदी होते हैं। जो लोग मनोज बाजपेयी की कोई फ़िल्म नहीं छोड़ते तो उन्हें फ़िल्म देखनी ही चाहिए। क्योंकि मनोज बाजपेयी फ़िल्म में थोड़ा सा अलग नज़र आयेंगे। इसके अलावा सस्पेंस थ्रिलर वाले लोगों को फ़िल्म पसंद आ सकती है। उसके अलावा देखने वालों पर निर्भर करता है कि वो 2 घंटे 16 मिनट की फ़िल्म की कितनी देर तक देख पाते हैं।
निर्देशक: अबन भरुचा देवहंस
कलाकार: मनोज बाजपेयी, प्राची देसाई, अर्जुन माथुर, बरखा सिंह, साहिल वेद।
प्लेटफार्म: जी 5