दिल्ली से बिहार का सहरसा लगभग 1230 किलोमीटर की दूरी पर बसा है। यह दूरी ट्रेन से 24 से 15 घंटे तक तय होती है। बस से उस से थोड़ा कम समय में तय हो जाती है। हवाई जहाज से एक घंटा कुछ मिनट में तय हो जाती है। इस बारे में किसी ने कभी नहीं सोचा कि ये दूरी साईकिल से या पैदल कितने समय में पूरी हो सकती है। यह 1 घंटा कुछ मिनट की फ़िल्म 1232 किलोमीटर की दूरी को साइकिल से तय करती हुई आगे बढ़ती है। इन साइकिल चलाने वालों को किन-किन मुसीबतों से गुज़रना होता है। किन-किन हालातों से गुज़रना होता है। निर्देशक कार में बैठा अपने केमरे से दिखाता चलता है।
सन 2020 कोरोना महामारी के लिए इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा। कोरोना के चलते ही पूरी दुनिया जैसे रूक सी गई थी। यह बिमारी बडे स्तर पर ना फैले इसलिए प्रधानमंत्री ने पूरे भारत में 24 मार्च को लॉकडाऊन की घोषणा कर दी। इस घोषणा में जो जहां है उसे वहीं रहने का आदेश दिया गया। यह लॉकडाउन पहले कुछ दिन के लिए था लेकिन कोरोना के बढ़ते खतरे को देख इसे फिर से बढ़ा दिया गया।
इसका असर उन लोगों पर सबसे ज़्यादा हुआ जो छोटे इलाकों से आकर बड़े शहरों में मेहनत मजदूरी कर रहे थे। वह लोग ना शहर में कुछ कर पा रहे थे और ना ही अपने घर जा पा रहे थे। बस, ट्रेन, जहाज सब बंद थे। ऐसे हालातों में सबको अपने परिवार वालों की फिक्र हो रही थी। ऐसे में कुछ लोग अपना सामान लेकर अपने घरों की तरफ पैदल ही चल दिए। कुछ लोग साइकिल से निकल पड़े थे।
इस फ़िल्म के निर्देशक विनोद कापड़ी को इस फ़िल्म का आइडिया उस समय आया जब सब लोग अपने घरों में बंद देश के हालात जानने के लिए टी.वी का सहारा ले रहे थे। विनोद कापड़ी एक गाड़ी लेकर एक ऐसे दस्ते की खोज़ में निकल पड़े जो गाजियाबाद से बिहार के लिए साइकिल पर निकला था। उन्होंने बहुत जल्द ही इस दस्ते को खोज़ लिया जो साइकिल से 1232 किलोमीटर के सफर तय करने के इरादे से निकले थे।
विनोद कापड़ी दिल्ली से बिहार जाने वाले उस दस्ते के साथ कैमरा लेकर हो लिए जिसकी राहें आसान नहीं बल्कि बहुत ही मुश्किलों भरी थीं। उन्हें अपने घर पहुंचने के लिए एक दिन में करीब 70-80 किलोमीटर साइकिल चलानी पड़ती थी। उस पर भी हाइवे रोड से बचकर वो गांव देहातों के जंगलों से होकर गुजर रहे थे ताकि पुलिस की मार से बच सकें। उन्हें गांव के लोकल लोगों से ही रास्ता पूंछना पड़ता था। किसी ने अगर जरा भी रास्ता गलत बता दिया तो कितने किलोमीटर गलत ही चले जाते थे। रास्ते में खाने को कुछ नहीं मिल रहा था। उन्हें अंधेरी किसी अंधेरी जगह पर पुलिस से छिपकर सोना पड़ता था। नहाने के लिए भी कुछ नहीं था। इस पर भी किसी ना किसी की साइकिल खराब हो जाती थी। किसी की चैन उतर जाती थी। किसी की साइकिल में पंचर हो गया तो कई किलोमीटर तक पैदल ही चलते रहे। कहीं रास्ते में नदी पड़ी तो पार करने के इरादे से उसी में साइकिल घुसा दी। किसी ट्रक वाले ने मदद की तो किसी ने धुत्कार दिया। कुछ पुलिस वालों ने रास्ता रोका तो कुछ ने मदद करके खाना खिलाया। ट्रक में बिठवाया। एक हफ्ता लगातार चलने के बाद अपनों से मिलने की चाह में निकला ये दस्ता अपने साथ अच्छे-बुरे अनुभव लेकर आखिर अपने गांव पहुंचा।
सिनेमा की नज़र से
देखें तो। फ़िल्म निर्देशक विनोद कापड़ी एक बडे पत्रकार रहे हैं। पत्रकार और फ़िल्म का बड़ा पुराना रिश्ता है। दोनों का ही सबंध कैमरे से है। कई बड़े पत्रकार बड़े निर्देशक बने हैं। उनमें ख़्वाजा अहमद अब्बास का नाम शायद सबसे पहले लिया जाये। विनोद कापड़ी भी लगभग उसी राह पर निकल पडे हैं। हालांकि इस से पहले उन्होंने ‘मिस टनकपुर हाजिर हो’ बनाई थी।
इस डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म को भारत में एक एक्सपेरिमेंट की तरह से देखना चाहिए। इस फ़िल्म ने जहां पत्रकारिता और फ़िल्म के बीच की दूरियों को कम कर दिया है वहां इसने फ़िल्म बनाने के लिए एक नई संभावना को भी पैदा किया है। फ़िल्म साबित करती है कि बड़े-बड़े सेट लगाने से भी फ़िल्म ही बनती है और एक कैमरा लेकर कहानी की खोज़ में निकल जाने से भी फ़िल्म ही बनती है।
विनोद कापड़ी ने फ़िल्म तो अच्छी बनायी है लेकिन फ़िल्म देखते हुए कई सवाल भी मन में आये। उसमें से एक कैमरे और हकीकत के बीच खड़ा बहुत ही पुराना सवाल है। एक आम आदमी जब कोई हादसा देखता है तो वो सबसे पहले उसकी मदद करने के भागता है। एक पत्रकार जब कोई हादसा देखता है तो सबसे पहले अपना कैमरा निकालता है। दोनों में सबसे ज़्यादा जरूरी क्या है? यह बहस बहुत पुरानी है।
विनोद कापड़ी ने अपने कई साक्षात्कार में इस बात का जवाब देने की कोशिश की है। वह अपने एन.ड़ी.टी.वी के साक्षात्कार में बताते हैं कि जो लोग फ़िल्म में दिखाये गये हैं। वह उन लोगों को खाने की मदद पहुंचा रहे थे। वह लोग एक दिन अचानक अपने घर के लिए निकल गये तो विनोद कापड़ी ने पहले उन्हें काफी समझाया फिर उनके साथ हो लिए। विनोद इस से पहले एक अपाहिज लड़की के साथ भी कानपुर तक निकले थे लेकिन बिमार होने का कारण वापस लौट आये।
विनोद कापड़ी ने हजारों मजदूरों के पलायन के दर्द को महसूस कराने के लिए इन सात लोगों की यात्रा को दिखाया है। डॉक्यूमेंट्री देखने वालों को सात यात्रियों के जीवन से जोड़ने के लिए वह जो सवाल करते हैं उनके जवाब सुनकर देखने वाला भावुक हो जाता है। वीडियो कॉल के जरिए कई बार उन लोगों के परिवार को दिखाया भी गया है। इस डॉक्यूमेंट्री में दो गाने हैं दोनी ही अंदर तक झंझोड देने का माद्दा रखते हैं। जैसे ‘मरेंगे तो वहीं जाकर जहां पर ज़िंदगी है’ ये लाइन समझ आये तो बहुत कुछ कहती है। इसके अलावा डॉक्योमेंट्री में ‘ओ बिदेसिया घर आइजा रे’ जो गाना है कहीं-कहीं रूलाने तक का असर रखता है।
हालांकि इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता है कि विनोद कापड़ी ने अपने पूंछे उन्हीं सवालों को स्क्रीन पर दिखाया है जो उनकी फ़िल्म के लिए फायदेमंद थे। उस पूरी डॉक्यूमेंट्री में वो उन्ही सवालों को पूछते दिखाए हैं जो उनकी डॉक्यूमेंट्री को एक दिशा देते हैं। वह सवाल उनकी डॉक्यूमेंट्री से गायब हैं जो उस वक़्त सफर पर निकले हजारों मजदूरों को दिशा देते। उन्होंने अपने पास फुटेज का पॉजीटिव हिस्सा ही ज़्यादा इस्तेमाल किया है बनिस्बत निगेटिव हिस्से के।
देखें ना देखें?
यह डॉक्यूमेंट्री आने वाले समय में इतिहास हो चुकी लॉकडाऊन की घटना का एक जीता जागता सुबूत होगी। मजदूरों के पलायन की बहुत सारी फुटेज मीडिया में यूटयूब पर पहले ही हैं लेकिन इतनी लम्बी फुटेज किसी के पास नहीं है कि उसे एक फ़िल्म का रूप दिया जा सके। वह लोग जो फ़िल्म बनाने का सपना देखते हैं और बड़े-बड़े कैमरों और बड़े-बड़े सेट का इंतजाम नहीं कर पाते हैं। उन लोगों को इस डॉक्यूमेंट्री से प्रेरणा लेनी चाहिए कि एक फोन और सोनी एस5 कैमरे से भी अच्छी फ़िल्म बनायी जा सकती है। किसी कहानी के बिना, किसी बड़े हीरो के बिना असली लोगों के साथ भी फ़िल्म बनायी जा सकती है।
निर्देशक: विनोद कापड़ी
प्लेटफार्म: डिज़्नी+हॉटस्टार