डिज़्नी+हॉटस्टार पर रिलीज होने वाली सीरीज 1962: दा वॉर इन दा हिल्स इंडियन आर्मी की एक सी कम्पनी की कहानी है। इस कम्पनी में कुल 150 जवान दिखाए गये हैं। कम्पनी में ज़्यादातर लोग एक ही गांव के रहने वाले हैं। कोई किसी के बचपन का दोस्त है तो कोई किसी का भाई है, कोई किसी का पिता है। इनके बीच व्यकितगत मतभेद होते हैं। आपसी रंजिशें होती हैं लेकिन फिर भी जंग के मैदान में एक दूसरे के लिए जान दे देते हैं। सीरीज की अच्छी बात है कि वह सिर्फ बॉर्डर पर लड़ रहे जवानों को ही नहीं दिखाती उनके परिवार को भी साथ-साथ दिखाती चलती है।
इस सीरीज का नाम 1962: दा वॉर इन दा हिल्स जरूर है लेकिन इसके सब प्लाट में दो बहुत ही प्यारी सी प्रेम कहानियां भी छिपी हैं जो जंग के साथ-साथ चलती हैं। निर्देशक महेश मांजेरेकर सीरीज को 1962 के युद्द से शुरू करते हैं। इंडियन आर्मी की सी कम्पनी मोर्चे पर लड़ने के लिए तैनात होती है। इस कम्पनी के कमांड मेजर सूरज(अभय देओल) के हाथों में है। अभय जिन्हें एकेडमी के दिनों से ही बहुत तेज तर्रार ऑफिसर माना जाता था। मेजर सूरज अपने जवानों के साथ बहुत पारिवारिक रिश्ता रखते हैं। उनके लिए उनके जवान सबसे पहले होते हैं।
यह लड़ाई असल में मेजर सूरज और चीन के कर्नल लिन के बीच दिखाई गई है। कर्नल लिन जो चीन का एक जांबाज और दिमाग से लड़ने वाला अफसर है। उसकी कम्पनी मेजर सूरज की कम्पनी को चारों तरफ से घेर लेती है। मेजर सूरज के पास रिट्रीट के ऑर्डर देने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है। मेजर सूरज अपनी कम्पनी को बचाने के लिए कर्नल लिन के आगे रिट्रीट कर देते हैं। मेजर सूरज के पैर में गोली लगने के कारण उन्हें अनफिट कर दिया जाता है।
मेजर सूरज लेकिन अपने अपमान का बदला लेना चाहता है। वह ताना देने वाले अपने ही साथियों को चुप कराना चाहता है। वह एक बार फिर से अपनी कम्पनी को लेकर मैदान में पहुंच जाता है। इस कम्पनी में सिर्फ 150 जवान हैं जिन्हें ऐसी जगह तैनात किया जाता हैं जहां से हमला होने का अंदाजा बहुत कम होता है। मेजर सूरज को लेकिन पूरा यकीन होता है कि वो लोग उसी रास्ते से आयेंगे। मेजर सहित मेजर की पूरी कम्पनी चीन के सैनियों को रोकने के लिए पहुंच जाती है। मेजर अपनी सी कम्पनी के साथ चीन के 3000 हजार सैनिकों को मारने के बाद खुद भी मर जाते हैं।
सिनेमा की नज़र से
निर्देशक और लेखक ने जंग के मैदान को अलग तरह से दिखाने की कोशिश की है। जंग को दो मेजरों के बीच दिमाग का एक खेल बना दिया है। एक तरफ इंडियन आर्मी के मेजर सूरज सिंह होते हैं और दूसरी तरफ चीन आर्मी के लिन होते हैं। निर्देशक की समझदारी कहें या लेखक का कल्पना की उसने जंग के मैदान में लड़ने वाले इन दोनों ऑफिसर को बहुत ही आदर्शवादी दिखाया है। यह दोनों ही जीतने के लिए अपना-अपना दिमाग लगा रहे हैं। दोनों ही अपने-अपने देश के लिए डयूटी कर रहे हैं।
निर्देशक ने मेजर सूरज और कर्नल लिन दोनों को ही अच्छा दिखाया है। मेजर लिन जो सिर्फ जीतने में विशवास रखता है, मारने में नहीं। वह एक बार मेजर सूरज को छोड़ देता है। लिन सूरज से लड़ भी रहा है और उसकी इज्ज़त भी कर रहा है। निर्देशक लड़ने वाले को विलेन बताने से बचा है। उसने वॉर में किसी को भी सही या गलत दिखाने की जगह अपने-अपने फर्ज़ निभाने वाला दिखाया है। उसने जंग को चार जगह दिखाया है। एक जो दो देशों को नेताओं के बीच है। दूसरी दो देश के मेजरों के बीच है। तीसरी दो देश के सिपाहियों के बीच है और चोथी इन सिपाहियों के परिवारों के बीच है।
निर्देशक वॉर में सिर्फ लोगों को मारते-मरते दिखाने में ही रूचि नहीं है। वह बताना चाहता है। वॉर सिर्फ बॉडर पर लड़ने वाले सिपाही की हार जीत नहीं होती उसके परिवार के लोगों की ज़िंदगी भी उनसे जुड़ी होती है। मेजर सूरज की कम्पनी में ऐसे दो जवान हैं जो अपने गांव की एक ही लड़की से प्यार करते हैं। इस त्रिकोणीय प्रेम कहानी से निर्देशक ने गांव से लेकर जंग के मैदान तक ड्रामा क्रिएट किया है। जंग के मैदान को देखते हुए दर्शक सोचता रहता है कि दोनों प्रेमियों में से कौन सा जंग के मैदान से बचकर अपनी प्रेमिका के पास जायेगा।
निर्देशक ने राम सिंह (सुमित व्यास) के जरिए एक और भावुक प्रेम कहानी को दिखाने की कोशिश की है। राम सिंह जंग के मैदान में अपने सीनियर के ऑर्डर नहीं मानता है जिसके कारण एक जवान की मौत हो जाती है। जवान का भाई भी सी कम्पनी में ही होता है। वह गांव में जाकर पंचायत करता है कि राम सिंह को गांव से निकाला जाए। मृतक जवान की पत्नी लेकिन राम सिंह के पक्ष में खड़ी हो जाती है। वह राम सिंह के बच्चे को पालती है। राम सिंह और उसके बीच एक भावुक रिश्ता जन्म लेने लगता है।
हालांकि निर्देशक के बीच-बीच में कहानी को भावुक करने देने से ड्रामा कहीं कहीं मैलोड्रामा बन जाता है। सीरीज में गांव के जितने भी सीन हैं सब के सब ज़्यादातर मैलोड्रामा बन जाते हैं। हर सिपाही की बैक स्टोरी मैलोड्रामा ही है जबकि सीरीज जब तक अभय देओल और लिन के बीच रहती है तब तक बहुत ही मैच्योर लगती है। सीरीज जब तक जंग के मैदान में रहती है मैच्योर रहती है। इसमें कुछ अभय देओल की एक्टिंग का भी कमाल हैं। अभय देओल चाहे अपने परिवार में माही गिल के साथ हों, या अपनी कम्पनी के जवानों के साथ जंग के मैदान में हों, चाहे दुश्मन देश के मेजर लिन के साथ हों सीरीज में मैच्योरिटी नज़र आती है। कहानी जैसे ही गांव में पहुंचती है या बाकी एक्टर के पास पहुंचती है। सीरीज का ड्रामा मैलोड्रामा बन जाता है।
अभय देओल जिन्होंने मेजर सूरज का किरदार ना कि निभाया बल्कि पर्दे पर जिया है। उनके संवाद सुनकर उनका बॉडी लैंग्वेज देखकर, उनकी एक्टिंग देखकर कोई नहीं बता सकता कि वो आर्मी ऑफिसर नहीं हैं। इस सीरीज में सुमित व्यास को भी एक अच्छा किरदार हाथ लगा है। सुमित के किरदार में बहुत सारे रंग थे वो जितने निभा पाये ठीक थे जो नहीं निभा पाये उनका अफसोस उन्हें होना चाहिए। माफी गिल ने एक मैजर की पत्नी की अच्छी भूमिका निभाई है। बहुत दिनों के बाद उन्हें एक अच्छा किरदार को पर्दे पर करने का मौका मिला है। उस मौके का फायदा भी उन्हें मिला है। इसमें कर्नल लिन के किरदार में मियांग चिंग जिन्होंने अभय देओल के साथ मिलकर सीरीज को देखने लायक बनाया है। उनका किरदार जितने अच्छे से लिखा गया है उतने ही अच्छे से उन्होंने उसको निभाया है। किरदार की मजबूती और खूबी के मामले में वो कहीं कहीं तो अभय देओल के मेजर सूरज के किरदार को भी पीछे छोड़ देते हैं।
देखें ना देखें?
सीरीज के गाने कहानी में होने वाले घटनाक्रम और उतार चढ़ाव के साथ एकदम से फिट बैठते हैं। सीरीज के गाने दर्शकों के अंदर शहीद के प्रति संवेदनाएं और देश के प्रति प्रेम को जगाने में सफल होते हैं। सीरीज के गाने मानवीय संवेदनाओं को जगाने में भी कामयाब होते हैं। इस सीरीज से 1962 के जंग के हालात समझ तो आते हैं लेकिन लेखक ने बहुत ज़्यादा किरदारों को कुछ हद से ही ज़्यादा अच्छा बना दिया है जिसके कारण दर्शक अच्छा ही अच्छा देखते हैं। सीरीज में होने वाले बहुत ज़्यादा मैलोड्रामा को हटा दें तो सीरीज अंत तक जोड़े रखने में कामयाब होती है।
निर्देशक: महेश मांजरेकर
कलाकार: अभय देओल, माही गिल, अनूप सोनी, सुमित व्यास, विनीत शर्मा, हेमल इंगल।
प्लेटफार्म: डिज़्नी+हॉटस्टार