कहानी अमित खान के फिक्शन उपन्यास ‘बिच्छू का खेल’ से ली गई है। बिच्छू का खेल की कहानी समझने के लिए बनारस के सामाजिक ढांचे को समझना पड़ेगा। कहानी क्योंकि बनारस पर ही आधारित है। बनारस उत्तर प्रदेश का सबसे मस्तमौला शहर है। यहां के लोगों से मिलकर लगता है कि यहां के लिए उन्हें अलग से बनाया गया। वहां की देशी भांग और देशी गालियां सिर्फ वहीं मिलेंगी। भांग पीने के बाद जो वहां के लोगों के क्रिएटिव दिमाग से उपजती हैं। बनारस की गलियों में जो गालियां आपको सुनने को मिलेंगी वो भारत के किसी हिस्से में आपको सुनने को नहीं मिलेंगी। वहां गालियां देना किसी के हाल चाल जानने जैसा है। हिन्दी के मशहूर लेखक काशी नाथ सिंह ने वहां की गालियों को अपनी प्रसिद्ध किताब ‘काशी का अस्सी’ में बडे प्यार से लिखा है।
लेखक जिब्रान नूरानी ने जिस तरह से बिच्छु का खेल सीरीज की शुरूआत की है उस तरह से जासूसी कहानियों की शुरूआत होती है। जासूसी लेखक इन्बे सफी हो, या केशव पंडित हो उनकी कहानियां इसी तरह से शुरू होती हैं। पहले एक हादसा होता है फिर उस हादसे की कड़ियों को आपस में जोड़ा जाता है। लेखन का यह बहुत पुराना तरीका है।
लेखक ने सीरीज का अंत पहले ही सीन मे लिख दिया है। वह पहले ही सीन में सीरीज के हीरो अखिल श्रीवास्तव (दिव्येंदू शर्मा) से सीरीज के विलेन को पब्लिक में सरेआम मरवाता है। उसके बाद अखिल को पुलिस में सरेंडर करवाता है और पुलिस इंस्पेक्टर (सय्यद जीशान कादरी) की पूंछताछ के आधार पर अखिल की जबानी सीरीज की कहानी आगे बढ़ाता है।
अखिल क्योंकि एक लेखक है और वो कहानी को बड़े फ़िल्मी अंदाज में सुना रहा है। पहले ही सीन के बाद दर्शक को जानने की जिज्ञासा होती है कि अखिल ने आखिर वकील को क्यों मारा? इस सवाल को जानने के लिए दर्शकों को चार एपिसोड का इंतजार करना पड़ता है। दर्शकों को पांच एपिसोड के बाद यह तो पता लग जाता है कि अखिल ने वकील को नहीं मारा लेकिन यह पता नहीं चलता कि वकील को आखिर किस ने मारा? इस सवाल का जवाब अंत में ही मिलता है। लेकिन क़ातिल को खोज़ता हुआ अखिल बहुत सारे राजों से पर्दा उठाता है।
अखिल का अपने पिता के बीच एक बहुत ही अलग सा रिश्ता है। एक बेटा बात-बात पर अपने बाप को गाली दे भारतीय समाज मे ऐसा कभी देखने को नहीं मिलता। एक बाप एक औरत के साथ हो और जवान बेटा बाहर पहरेदारी करे ऐसा भी कहीं नहीं होता। खैर लेखक ने लिखा है तो क्या पता कहीं होता भी हो। लेकिन अखिल का बाप स्क्रीन पर किसी भी तरह उसका बाप नहीं लगता। अखिल अपने बापु के साथ जिस मिठाई की दुकान में काम करता है उसी की पत्नी से बापु का चक्कर होता है। वह रात बे रात उसके घर जाता रहता है। इन दोनों बाप बेटों में कोरियन निर्देशक किम की डुक की फ़िल्म 3 आयरन के हीरो के जैसी आदत है। यह लोग किसी भी बंद घर में घुसकर रात बिताते हैं। अखिल का बाप जिस बंद घर में रात बिताने जाता है वहां एक मर्डर हो जाता है जिसका इल्ज़ाम अखिल के बाप पर आता है। यहीं से असल बिच्छु का खेल शुरू होता है।
अखिल अपनी प्रेमिका के वकील पिता को अपने पिता का केस लड़ने के लिए राजी कर लेता है। उसके पिता की जमानत भी हो जाती है और मर्डर भी हो जाता है। अपने पिता के हत्यारों को खोजता हुआ अखिल धीरे-धीरे सबके राजों से पर्दा उठाता है। किस तरह दो बेटे अपनी ही सोतेली मां के साथ सो रहे हैं। किस तरह एक वकील अपने मर्द प्रेमी के साथ मिलकर अपनी पत्नी की हत्या करता है। किस तरह एक लड़की अपनी मां का बदला लेने के लिए पिता की हत्या करना चाहती है। एक भाई किस तरह अपने ही भाई के खिलाफ साजिशें कर रहा है। लेखक इन सब खुलासों के बाद भी दर्शकों को अंत तक नहीं बताता कि असली क़ातिल कौन है?
सिनेमा की नज़र से
फ़िल्मों की कहानी के पात्र काल्पनिक होते हैं। यह जानते हुए भी दर्शक और पात्रों के बीच एक मनोवैज्ञानिक रिश्ता होता है। जो फ़िल्म देखते हुए सिर्फ दर्शक के दिमाग में बनता है। दर्शक उन पात्रों के काल्पनिक जीवन में जब तक इंटरेस्ट नहीं लेता तब तक उसका मन फ़िल्म में नहीं लगता। सीरीज बिच्छु का खेल के निर्देशक अपने किरदारों का दर्शकों के साथ वो रिश्ता नहीं बना पाये।
निर्देशक ने एक एपिसोड की समय सीमा कुल 22 मिनट रखी है। इसलिए 9 एपिसोड की सीरीज में सबकुछ बहुत ही जल्दबाजी में हो रहा है। किसी भी किरदार को समझने का मौका ही नहीं मिलता। दर्शक किसी भी किरदार से अपने आपको कनेक्ट नहीं कर पाता है। यही वज़ह है कि 9 एपिसोड देखने के बाद भी सीरीज के सारे किरदार अजनबी से लगते हैं।
सीरीज मे कम समय मिलने के कारण ही एक्टरों को अपने किरदार में खुलकर आने का मौका नहीं मिला। इतनी जल्दी-जल्दी घटनाक्रम बदलते हैं कि दर्शक किसी भी किरदार के साथ बहुत देर तक नहीं जुड़ पाता है। एक सीन मे बहुत ज़्यादा किरदार रखने के कारण ही दर्शकों की कहानी से पकड़ भी छूट जाती है।
इस सीरीज में जिन दो किरदारों पर दर्शकों की सबसे ज़्यादा नज़र थी। उनमे एक वासेपुर के डेफिनेट सय्यद जीशान कादरी और मिर्जापुर के मुन्ना भय्या दिव्येंदु शर्मा थे। दोनों ही सीरीज में एक दूसरे के अपोजिट हैं। दिव्येंदू क़ातिल हैं तो जीशान पुलिस वाले हैं। जीशान कादरी जबकि खुद एक लेखक हैं उसके बाद भी उनका अजीबो गरीब पुलिस वाले का किरदार है। कहानी में जिसका वज़न किसी मशखरे से ज़्यादा नहीं है। कहानी में जहां उन्हे तरज़ीह दी जानी थी उनके किरदार का रोब दिखना था वहां वो अपनी बीवी के फोन आने पर एक कमजोर किरदार बनकर रह जाते हैं। हालांकि उन्होंने अपने कमजोर किरदार को भी एक्टिंग के जरिए अच्छी तरह निभाने की पूरी कोशिश की है। सीरीज में जिस तरह से पुलिस और अदालतों का फिल्मांकन किया है, साठ के दशक में भी उस बेहतर होता था। सीरीज मे पुराने गानों का बीच-बीच मे जो इस्तेमाल है वो काफी अच्छा लगता है।
अखिल श्रीवास्तव vs मुन्ना त्रिपाठी
हाल फिलहाल में आयी मिर्जापुर के मुन्ना त्रिपाठी किरदार से दिव्येंदु शर्मा की शोहरत में बहुत इज़ाफा हुआ है। मिर्जापुर सीरीज में विलेन होने के बाद भी उन्हें हीरो से ज़्यादा शोहरत मिली। उसका कारण था उनकी बेबाक अदाकारी जो बिल्कुल रियल लगती है। खासकर जब वो अपने दोस्तों से बात करते हैं। उनके आम आदमी की तरह बोले गये संवाद लोगों के दिलो दिमाग पर छा जाते हैं। मिर्जापुर में उनकी एक्टिंग का कमाल यही था कि किसी भी सीन में नहीं लगा कि वो एक्टिंग कर रहे हैं।
बिच्छु का खेल में उनका अखिल का किरदार टेक्नीकली मुन्ना त्रिपाठी से बहुत अलग है लेकिन जब वो संवाद बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि अखिल की जगह मुन्ना त्रिपाठी बोल रहा है। मुन्ना त्रिपाठी एक गैंग्सटर है। उसका पिता बाहुबली है। वह जो कर रहा है उसने अपने माहौल में वैसा ही देखा है। अखिल एक लेखक है, उसके सोचने समझने और बात करने के अंदाज में लेखकों जैसी कोई बात नज़र नहीं आती। वह कभी-कभी जब धमकी देता है तो लगता है कि मुन्ना त्रिपाठी ही बोल रहा है। पूरी सीरीज में अखिल के किरदार पर मुन्ना त्रिपाठी का किरदार हावी रहा है। इस सीरीज में उनके किरदार की सबसे कमजोर बात है कि देखने वालों को महसूस होता है कि वो एक्टिंग कर रहे हैं।
कोई क्यों देखें?
ऐसा नहीं है कि सीरीज देखने पर कहीं बोरियत होती है। ऐसा भी नहीं है कि सीरीज देखने पर कहीं ऐसा लगता है कि सब कुछ देख चुके हैं। ऐसा भी नहीं की कहीं लगता है कि बस बंद करो। हर एपिसोड के बाद अगला एपिसोड देखने की इच्छा होती है। लेकिन सीरीज देखते हुए हमेशा आपको याद आता रहता है कि आल्ट बालाजी की सीरीज है। आल्ट बालाजी की बनारस को लेकर पहली सीरीज नहीं है। इस पहले वो वर्जिन भास्कर भी बनारसी बैकग्राऊंड पर बना चुके हैं।
निर्देशक: आशीष शुक्ला
कलाकार: दिव्येंदु शर्मा, सय्यद जीशान क़ादरी, मुकुल चड्ढा, मोनिका चौधरी, प्रेमनाथ गुलाटी।
प्लेटफार्म: जी5