आठ मार्च को सारी दुनिया जब महिला दिवस के रूप में मना रही थी तब नेटफ्लिक्स ने बोम्बे बैगम्स सीरीज को रिलीज किया। यह 6 एपिसोड की सीरीज जो महिलाओं के खिलाफ होने वाली ऐसी बहुत सारी बातों के जवाब देती है जिन्हें एक औरत ही औरत से पूंछती है। उन सारे सवालों के जवाब देती है जिन्हें एक औरत के विरोध करने पर समाज के ठेकेदार उस से पूंछते हैं। एक औरत के दर्द को एक औरत ही क्यों समझ सकती है? एक औरत को दूसरी औरत का दर्द क्यों समझना चाहिए? सीरीज ऐसे बहुत से सवालों के जवाब समझदारी से देती है।
यह बात सीरीज में बहुत जगह नज़र आती है कि सीरीज का निर्देशन दो महिलाओं ने किया है अगर कोई मर्द करता तो वहां तक कभी नहीं पहुंच पाता जहां तक सीरीज देखने वालों को लेकर जाती है। इसकी एक वज़ह इसकी तीन लेखक अलंकृता श्रीवास्तव, बोरनिल चटर्जी, इति अग्रवाल हैं। इन तीनों लेखकों ने एक ऐसी बच्ची साई (आध्या आनंद) को शूत्रधार के रूप में चुना है जिसका औरत होने की दहलीज पर पहला कदम है। वह अभी अपने पहले प्रीयड आने का इंतजार कर रही है।
साई सीरीज की उन महिलाओं में से एक पात्र है जो अपनी कहानी के जरिए दर्शकों को एक दुनिया दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। साई एक बहुत अमीर मां-बाप की बेटी है। यह अभी बच्ची है और जल्द से जल्द बड़ी होना चाहती है ताकि अपने स्कूल के हैंडसम लड़के से प्यार कर सके। वह सीरीज के अंत तक ऐसा करने का ही प्रयास करती रहती है। साई के इस किरदार के ज़रिए निर्देशकों ने टीनएज़र लड़कियों के मन में उठने वाली फीलिंग को छूने की कोशिश की है। अंत में इसी किरदार को निर्देशक भविष्य में महिलाओं की सोच में आने वाले बदलाव के मेटाफर के रूप में इस्तेमाल करतीं है।
रानी (पूजा भट्ट) कानपुर की एक साधारण सी लड़की जो एक बैंक की सी.ई.ओ हैं। रानी को बैंक बचाने के लिए और अपनी पोस्ट को बचाने के लिए बहुत कुछ ऐसा करना पड़ रहा है जिसका आगे चलकर उसे पछतावा होता है। रानी के ज़रिए निर्देशक ने ऐसे कामयाब औरत की सोच को दिखाने की कोशिश की है जो लड़कियों को सब कुछ नज़र अंदाज़ करके आगे बढ़ते रहने का पाठ पढ़ाती हैं।
इसके बाद फातिमा के किरदार में शहाना गोस्वामी हैं। फातिमा के किरदार के जरिए लेखक ने कॉर्पोरेट जगत की ऐसी महिला की सोच की छूने की कोशिश की है जो अपने बॉस के लिए सब कुछ संभालती रहती है। फातिमा अपना स्टेटस बढ़ाने के लिए बहुत कुछ ऐसा कर रही है जिस से आगे चलकर उसे भी पछतावा होता है। फातिमा के नीचे काम करने वाली आयसा (प्लाबिता ब्रोथाकुर) इंदौर से मुम्बई में कुछ बनने के इरादे से आयी है। उस कुछ बनने की चाह में वह वो भी नहीं रहती जो थी। वह छोटी-छोटी सी चीजों के लिए इस्तेमाल हो रही है। आयसा को लड़ने की शक्ति पढ़ी लिखी महिलाओं से नहीं बल्कि एक प्रोस्टिटयूट लिली(अमृता सुभाष) से मिलती है। बैंक जिसे लॉन देकर शक्तिशाली बनाना चाहता है। लिली आयसा के ज़मीर को जगाती है। आयसा के ज़रिए रानी, फातिमा का भी ज़मीर जाग जाता है।
सिनेमा की नज़र से
निर्देशक चाहे जितने अच्छे विचार को लेकर सिनेमा बनाए। उस विचार की पहली शर्त है कि वो सिनेमा के दायरे में मुकम्मल दिखना चाहिए। यह सीरीज क्योंकि ऐसे विचारों को, ऐसे एहसासों को पर्दे पर दिखाने की कोशिश करती है जिन पर समाज में लगातार बहस जारी है। सीरीज के देखने वालों के कई पहलू हो सकते हैं। सीरीज देखने वालों की राय अलग-अलग हो सकती हैं। लेकिन अगर सीरीज की कुछ पॉजीटिव बातों पर गौर किया जाये तो सीरीज कई जगह नई बात कह पाने में सफल होती है।
बोम्बे बेगम्स औरत के ख़िलाफ एक औरत की भूमिका को दिखाने की कोशिश करती है। निर्देशक ने इसीलिए अलग-अलग समाज के किरदारों को लिया है। रानी जिसने छोटे से कस्बे से निकलकर एक बड़े बैंक की सी.ई.ओ बनने तक का सफर तय किया है। एक प्रोस्टीटयूट जो अपने बच्चे को इज्ज़त दिलाने के लिए लड़ रही है। एक फातिमा है जो अपने पुरूष बॉस के कहने पर महिला बॉस के खिलाफ़ साजिश कर रही है। सीरीज कहीं ना कहीं इस बात की तरफ इशारा करती है कि मर्द औरत के ख़िलाफ एक औरत को अपनी ढ़ाल के रूप में इस्तेमाल करता है।
यह सीरीज कई जगह मी टू में महिलाओं के ख़िलाफ उठने वाले इन सवालों का जवाब भी देती है कि तब क्यों नहीं बताया अब क्यों बताया ह? उस आदमी ने कभी हमारे साथ तो कुछ नहीं किया? तुम उसके साथ गईं क्यों थीं? इसके अलावा निर्देशक देखने वालों का ध्यान उस तरफ भी ले जाती हैं जहां एक महिला ही महिला को प्यार में धोखा दे रही है। महिलाओं के लिए कविता लिखने वाली प्रोग्रेसिव लड़की के पिता पर जब हरेसमेंट का इल्ज़ाम लगता है तो वह लड़की के ख़िलाफ़ कैसे अपने पिता के साथ खड़ी होती है।
सिनेमा की अपनी एक ग्रामर होती है। उस लिहाज से देखें तो सीरीज में कई खामियां साफ नज़र आती हैं। यह 6 एपिसोड की सीरीज अंत में सब कुछ सही कर देती है जो कहानी को मौजूदा सच्चाई से कहीं दूर ले जाती है। यह सीरीज पांच महिलाओं की कहानी है। यह अलग-अलग उम्र की हैं। यह अलग-अलग समाज से आती हैं। निर्देशक लेकिन इनके साथ होने वाले हर केस में इनकों क्लीनचिट नहीं देतीं है। वह इनको भी कहीं ना कहीं उसका भागीदार बनाकर चल रही हैं। यह सब देख ऐसा लगता है कि निर्देशक जानबूझकर संतुलन बनाने की कोशिश कर रहीं हैं।
आयसा जिसकों उसकी बोस फातिमा घर से निकाल देती है। वह अपनी एक दोस्त के घर पर जाकर रहती है। उसकी दोस्त का ब्वायफ्रेंड रात को चुपके से आयसा के साथ सबंध बनाता है। आयसा इसका विरोध नहीं कर रही है क्योंकि उसके पास रहने को घर नहीं है। रानी अपने कुलिग को बचाने के लिए आयसा पर दबाव बनाती है। फातिमा भी आयसा को झूंठ बोलने के लिए मजबूर करती है। इनमें रानी और फातिमा दोनों का ही एक्सट्रा रिलेशन है। यह बात इनके मर्दों को पता है। मर्द इस पीड़ा को झेल रहे हैं। सीरीज के सारे मर्द किरदार बड़े ही इनोसेंट से लगने लगते हैं।
सिनेमा की नज़र से देखें तो सीरीज किसी भी टेकनिकल ग्राऊंड पर ज़रा सी भी अलग नज़र नहीं आती है। सिनेमाटोग्राफी ऐसा कुछ खास सीन नहीं दिखाती है जिसकी अलग से बात की जाये। संगीत के बारे में भी वैसा ही कहा जा सकता है। सीरीज में कलाकारों की एक्टिंग पर बात की जा सकती है। पूजा भट्टा इतने दिनों बाद स्क्रीन पर दिखीं। उनका काम ठीक-ठाक ही रहा। फातिमा के किरदार में शहाना गोस्वामी ने जो हर समय अपने किरदार पर पकड़ बनाये रखी है वो बहुत खूब है। ऑफिस का स्ट्रेस उनकी एक्टिंग में साफ झलकती है। वह अमृता सुभाष ने अच्छा किरदार निभाया है। आध्या आनंद और प्लाबिता ब्रोथाकुर ने भी अपने किरदारों को बहुत ही सूझ बूझ के साथ निभाया है। यह दोनों ही किरदार बहुत समझदारी चाहते भी थे।
इनके अलावा सीरीज के सारे के सारे पुरूष किरदारों के पास बहुत कुछ खास काम नहीं था। राहुल बोस तो बहुत ही कम समय के लिए स्क्रीन पर नज़र आते हैं। इमाद शाह तो फिर भी कुछ समय नज़र आते हैं। कहानी में उनका कुछ खास काम नहीं दिखता है। दानिश हुसैन भी कम ही समय स्क्रीन पर दिखते हैं।
देखें ना देखें?
यह सीरीज महिला दिवस पर इसीलिए रिलीज की गई थी क्योंकि यह महिलाओं के बहुत ही गम्भीर मुद्दों को छूती है। निर्देशक और लेखक कई बार देखने वाले पुरूष को सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि एक मर्द को औरत से किस तरह से पेस आना चाहिए। यह सीरीज सिर्फ मर्द को ही नहीं एक औरत को भी कठघरे में खड़ा कर देती है। एक औरत को क्या इग्नोर करना चाहिए और क्या बिल्कुल नहीं करना चाहिए।
निर्देशक: अलंकृता श्रीवास्तव बोरनिल चटर्जी
कलाकार: पूजा भट्ट, प्लाबिता ब्रोथाकुर, शहाना गोस्वामी, अमृता सुभाष, आध्या आनंद दानिश हुसैन, राहुल बोस।
प्लेटफार्म: नेटफ्लिक्स