नक्सलबारी जी5 पर 9 एपिसोड के साथ रिलीज हुई है। हर एपिसोड लगभग 30 मिनट का है। पहले एक-दो एपिसोड कहानी को समझने में मदद करते हैं। उसके बाद के सभी एपिसोड कहानी को तेजी से आगे बढ़ाते हैं। नक्सलबारी जैसा की नाम से ही जाहिर है। यह एक पॉलीटिकल ड्रामा है जो बॉलीवुड की हिन्दी एक्शन फ़िल्मों के जैसा ही है।
नक्सलबारी की कहानी कुल पांच लेखकों ने मिलकर लिखी है जबकि पटकथा पुलकित ऋृषि और पराख़र विहान ने लिखी है। सीरीज का नाम जितना गम्भीर है। सीरीज देखने पर कहानी में उतनी गम्भीरता नहीं दिखती है। पटकथा में बहुत से मुद्दों को टच तो किया गया है लेकिन उनको बहुत ही ऊपरी स्तर से छुआ गया है जिसके कारण ड्रामा बढ़ जाता है।
सीरीज में हीरो का स्थान रखने वाले राघव (राजीव खंडेलवाल) अपनी तहक़ीकात से कहानी को आगे बढ़ाते हैं। राजीव मुम्बई पुलिस के एस.टी.एफ में हैं। वह नक्सलियों दृुवारा किए गये एक हमले की जांच में लगे होते हैं। एक कालेज के प्रोफेसर का नाम शक के दायरे में आता है। वह उसी के पीछे लग जाते हैं।
राघव का साथी मोहित कोई बहुत ही अंदरूनी जानकारी जुटा लेता है लेकिन राघव को बताने से पहले ही उसकी हत्या हो जाती है। राघव उसकी हत्या के शक में प्रोफेसर को उठाने के लिए जाता है तो वहां उसी का अपहरण हो जाता है। राघव को किसी तरह उसके लोग छुटा लेते हैं।
शहर में केसवानी नाम का एक लड़का जंगल की जमीन पर इफका प्रोजेक्ट को लॉच करना चाहता है। उस प्रोजेक्ट के लिए वो सरकार के साथ डील कर रहा है। उस प्रोजेक्ट में सरकार से लेकर उधोगपति तक सभी शामिल हैं। उसी प्रोजेक्ट के बचाने के लिए सरकार जंगल में फोर्स उतार देती है।
राघव को पता चलता है कि उसके साथ रहने वाली लड़की ही उसके दोस्त की क़ातिल है। उसकी आंखे खुल जाती हैं। कुछ पुलिस वाले, गांव के लोग उनको खबर पहुंचाते हैं। अंत में राघव को पता चलता है कि उस प्रोजेक्ट को लॉंच करने वाला केसवानी ही असल में नकसलियों सबसे बड़ा लीड़र बाबा है जो प्रोजेक्ट लॉन्च के बहाने कुछ बड़ा करना चाहता है। राघव अपने दो साथियों के साथ उसे रोकने लिए पहुंचता है और सभी को ख़त्म करके सब कुछ बचा लेता है।
सिनेमा की नज़र से
निर्देशक पार्थो मित्रा ने समय की मांग का खास ख़्याल रखा है। इस समय वेबसीरीज में इंवेस्टीगेशन वर्सेज चालाक स्पायी मुजिरम ही चल रहा है। सस्पेंस का तड़का हर सीरीज में जरूर देखने को मिलता है। उस लिहाज से सीरीज को देखा जाये तो जैसे-जैसे सीरीज आगे बढ़ती है और निर्देशक अपने पत्ते खोलते जाता है। सीरीज में मजा आने लगता है।
लेकिन सीरीज राजनीतिक तौर पर गहराई में जाने से बचती है। वह किसी भी राजनीतिक विचार को गम्भीरता से नहीं छूती है। वह सिर्फ एक ही घटना की तहकीकात के संदर्भ में चीजों को देखती है। जिसमें राजनीति, बिजनेस, जंगल पूरी तरह नहीं समा पाते हैं। वह ऊपरी तौर पर दिखते हैं।
राजीव खंडेलवाल एस.टी.एफ के ऑफिसर के किरदार में सही साबित होते हैं। वह अपनी एक्टिंग में एक ऑफिसर वाला नज़रिया बनाये रखते हैं। कहानी में उनका किरदार एक ऐसे लड़के का है जिसके पिता को पुलिस नक्सली के साथ सबंध रखने के इल्जाम में फंसाती है। जो सिस्टम से निराश होकर आत्महत्या कर लेते हैं। उनके मरने के बाद जिसकी परवरिश एक पुलिस वाले के हाथों होती है। उसी के कारण वो एक ऑफिसर बनता है। यह सब इतनी बार देखा जा चुका है कि बहुत फ़िल्मी लगता है।
निर्देशक अंत तक केसवानी (आमिर अली) के किरदार पर पर्दा डाले रखता है। केसवानी जो जंगल में फैक्ट्री लगाने का एक प्रोजेक्ट सरकार के साथ मिलकर करना चाहता है। सरकार उसी के प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए अपनी फोर्स लगा देती है और अंत में पता चलता है कि वही केसवानी नक्सलियों का लीडर बाबा है जो अपनी रणनीति के तहत ही सबको एक जगह इकट्ठा करता है। निर्देशक ने सस्पेंस अच्छा बनाये रखा है।
सीरीज का बहुत सारा हिस्सा जंगल में शूट किया गया है। जंगल के कुछ सीन देखने में काफी अच्छे लगते हैं लेकिन कुछ सीन बहुत ही साधारण से लगते हैं। सीरीज में सिनेमाटोग्राफी के स्तर पर नया कुछ नहीं हाथ लगता है। गीत के रूप में एक टेगलाइन ‘अंत ही प्रारम्भ है’। हर एक्शन सीन पर सुनने को मिलती है जो बस एक दो बार ही अच्छ लगती है।
देखें ना देखें
आदिवासियों का जल,जंगल, जमीन पर अपना नज़रिया है। वह अपने दर्द को अलग तरह से बताते हैं। इस पर सोशल जस्टिस की बात करने वाले लोग अपने नज़रिए से बात करते हैं। सरकार अपना अलग नज़रिया रखती है। पुलिस अपना अलग नज़रिया रखती है। इन सब से ऊपर समाज को दिशा देने वाली मीडिया का अपना नज़रिया है। इस 9 एपिसोड की एक्शन सीरीज में थोड़ा-थोड़ा सबका नज़रिया देखने को मिलता है।
निर्देशक: पार्थो मित्रा
कलाकार: राजीव खंडेलवाल, सत्यदीप मिश्रा, आमिर अली, शक्ति आनंद, टीना दत्ता
प्लेटफार्म: जी5