पंकज त्रिपाठी ने बिहार के एक छोटे से गांव से निकलकर किस तरह बॉलीवुड में अचानक से छा गये। यह क्या अचानक से हुआ या फिर इसके पीछे एक कड़ा संघर्ष है? यहां तक पहुंचने में उन्हें किन किताबों ने किन लोगों ने किन लेखकों ने यहां तक की किन गानों ने प्रभावित किया।
ज़िंदगीनामा
पंकज त्रिपाठी का जन्म 1976 में बिहार गोपाल गंज के एक गांव में हुआ था। उनके पिता एक किसान हैं। जो उन्हें डॉक्टर बनाना चाहते थे। पंकज अपने भाई बहनो में सबसे छोटे हैं। पंकज अपने साक्षात्कारों में अपने गांव का जिक्र जब करते हैं तो बताते हैं कि उनके गांव में लाइट नहीं थी। बहुत ज़्यादा पढ़ाई लिखाई के साधन नहीं थे। गांव के पास से ही एक नदी बहती थी जिसमे उन्होंने तैरना सीखा था और जब तैरना सीख गये तो नदी उन से बहुत दूर हो गई। वह नदी छोड़कर समुंद्र के किनारे आ बसे।
पंकज त्रिपाठी छोटे-मोटे स्तर की एक्टिंग अपने गांव से ही करने लगे थे। उन्हींं की ज़बानी छठ के बाद उनके गांव में छोटे-मोटे नाटक हुआ करते थे। पंकज ने पहले उन्हीं नाटकों में भाग लेना शुरू किया था। उस से लेकिन उनके जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। उन्होंने एक्टिंग करने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था।
एक्टिंग और थिएटर का शोक उन्हें पटना आकर लगा। वह डॉक्टर बनने की चाह में पटना चले आये। यहां छात्र राजनीति में रूचि लेने लगे। जिस से उनका पब्लिक में बोलने का भय जाता रहा। छात्र राजनीति में ही उनके कुछ दोस्त एक दिन उन्हें जनवादी नाटक ‘अंधा कुआं‘ दिखाने के लिए ले गये। उस नाटक का पंकज पर गहरा असर पड़ा। पंकज बताते हैं कि उस नाटक को देखकर वो रो पड़े थे। उन्होंने पहली बार सही मायने में नाटक को समझा था। उसके बाद वो पटना में होने वाले नाटकों को निरंतर देखने लगे। नाटक पढ़ने लगे और नाटक करने भी लगे। पंकज ने कुछ दिनों के बाद तय कर लिया था कि उन्हें डॉक्टर नहीं एक्टर बनना है। इसी सपने को पूरा करने के लिए वह दिल्ली एन.एस.ड़ी में चले आये। यहां उन्होंने एक्टिंग की थ्योरी को जाना। एक्टिंग को समझा।
पंकज एन.एस.ड़ी से पास होने के बाद कुछ दिन तो नाटक करते रहे। उसके बाद जब उन्हें समझ आ गया कि अब नाटकों से जीविका नहीं चल सकती है। वह अपने दोस्तों से विदा लेकर 2004 में पत्नी सहित मुम्बई चले आये। यहां आकर उनका असल संघर्ष शुरू हुआ। कितने निर्देशकों ने ऑडिशन में ही निकाल दिया। कितनी जगह लाइन में लगकर ही वापस आ गये। हालांकि पंकज त्रिपाठी इस पर हैरत नहीं करते हैं। उनका कहना है कि हज़ारों लोग ऐसा ही करते हैं। उन्होंने कुछ भी अलग नहीं किया है।
पसंदीदा फ़िल्में
पंकज त्रिपाठी को मुम्बई आने के बाद छोटे-मोटे रोल मिलते रहे। पहली बार उन्हें 2004 की हिन्दी फ़िल्म रन में विजय राज के साथ एक छोटे से सीन में देखा गया था। उसके बाद उन्हें अपहरण, ओमकारा, मिथ्या, चिल्लर पार्टी, रावन, आक्रोश, अग्निपथ में देखा गया था। लेकिन उन्हें असल पहचान अनुराग कश्यप की वासेपुर से मिली थी। उसमें उन्होंने जो किरदार निभाया था उसके बाद वो सबकी नज़रों में उतरते चले गये। उसके बाद तो उनकी मसान, निल बटे सन्नाटा, अंग्रेजी में कहते हैं, दबंग, फुकरे, अनार कली ऑफ आरा, बरेली की बर्फी, गुडगांव एक से बढ़कर एक फ़िल्म आने लगीं। फ़िल्मों के अलावा वेबसीरीज से तो उनकी एक्टिंग में चार चांद ही लग गये। सेक्रेड गेम और मिर्जापुर के कालीन भय्या ने उनकी शौहरत के झंडे ही गाड दिये। मिर्जापुर से उन्होंने हर किसी को अपनी एक्टिंग से कायल कर दिया।
पंकज से जब किसी लल्लनटाप के एक साक्षात्कार में पूंछा गया कि वो इस समय की कौन सी फ़िल्में उन्हें पसंद हैं तो उन्होंने सात फ़िल्मों का नाम लेकर बताया। इनमें कन्नड भाषा की तिथि ( 2015), मराठी भाषा की कोर्ट (2014) मराठी भाषा की किल्ला (2014) अंगामली डायरीज मलयालम (2017) सुपर डीलक्स तमिल (2019) न्यूटन हिन्दी (2017) गुडगांव (2017) हैं। इन फ़िल्मों के बारे में पंकज त्रिपाठी का कहना है कि एक बार इन फ़िल्मों को आज़माना चाहिए।
पसंदीदा किताबें और लेखक
पंकज त्रिपाठी राज्य सभा के एक साक्षात्कार में बताते हैं कि वो कुछ समय तक दक्षिणपंथी राजनैतिक विचार धारा से लगाव रखते थे। कुछ किताबें और नाटक देखने के बाद उनके विचारों में परिवर्तन हुआ। वह एक्टिंग और थिएटर साहित्य, रंगमंच की तरफ झुकने लगे। जिसके चलते वो दुनियाभर का साहित्य पढ़ने लगे। अपने एक और साक्षात्कार में वो उन किताबों और लेखकों का जिक्र करते हैं।
पंकज बताते हैं कि उन्होंने ‘अंधा कुआं’ नाटक जब देखा तो उसे देखकर रो पड़े थे। उस नाटक का इन पर बहुत गहरा प्रभाव हुआ। इसके बाद उन्होंने नाटकों को पढ़ना और देखना अपना रूटीन बना लिया। उनमें उन्होंने चेखव की कहानियों का जिक्र किया। वह गोर्की की कहानियों को अपनी पसंदीदा कहानी बताते हैं। इसके अलावा जब उनसे उनकी पसंदीदा किताब के बारे में पूंछा जाता है। वह हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक श्री लालशुक्ल की किताब ‘राग दरबारी’ का नाम लेते हैं। ‘राग दरबारी’ उन्हीं की नहीं बहुत लोगों की पसंदीदा किताब है।
पंकज अपने एक साक्षात्कार में अपने गुरूओं प्रसन्ना, अनुराधा कपूर, बज्जु भाई, बंसी को नाम लेकर याद करते हैं। वह अपने उस्ताद बज्जु भाई को याद करते हुए एक किस्सा भी बताते हैं कि एक फ़िल्म के सीन में वो अपने ही उस्ताद बज्जु भाई के साथ काम कर रहे थे। सीन ख़त्म होते ही बज्जु भाई ने उनका हाथ चूमकर कहा कि उन्हें खुशी है उन्होंने पंकज का सेलेक्शन किया था।
पसंदीदा गाने
पंकज त्रिपाठी जिस घर से आते हैं वहां संगीत से किसी का लेना देना नहीं था। संगीत के बारे में ही बॉलीवुड हंगामा के एक साक्षात्कार में वो बताते हैं कि उनके भाई की जब शादी हुई तो दहेज में एक टेपरिकार्डर और सात केसेट मिली थीं। उन्हीं में एक केसेट पर सिंगर के नाम के साथ कोरस में गाने वालों के नाम लिखे थे। पंकज को उस समय लगा कि कोरस कोई बहुत बड़ा सिंगर है। यह भ्रम उनका कई सालों बाद टूटा था।
पंकज बताते हैं कि उनकी मेमोरी में जो गाने फंस गये थे। उन गानों में सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाला फ़िल्म जान तेरे नाम का गाना ‘फर्स्ट टाइम देखा तुम्हें हम खो गया सेकेंड टाइम में लव हो गया’ था। पंकज जब स्त्री फ़िल्म कर रहे थे तो एक सीन में उन्होंने इस गाने के बोलों का इस्तेमाल भी किया। इस गाने के बोलों से हालांकि पंकज त्रिपाठी को फर्स्ट टाइम में ही लव हुआ था। वह अपनी प्रेम एक साक्षात्कार में बताते हैं। मृदुला इस समय जो उनकी पत्नी हैं। पंकज ने उन्हें एक शादी में ही देखा था। उसके बाद अगले दिन उन्होंने फैंसला कर लिया था
इसके अलावा वो बताते हैं कि एक गाना और है जो उनकी मेमोरी में फंसा हुआ है ‘तोता मेरे तोता मैं तो तेरी हो गई’। पंकज कहते हैं कि किसी दिन किसी ना किसी सीन में वो इस गाने का भी इस्तेमाल जरूर करेंगे।
हिन्दी भाषा से है खास लगाव
पंकज त्रिपाठी एक ऐसे नायक हैं जिनकी भाषा सबसे अलग है। उनकी प्रसिद्धी में उनकी भाषा का बड़ा योगदान है। एक समय था जब हिन्दी फ़िल्मों की भाषा पर उर्दू का प्रभाव था। कुछ एक्टर जो बहुत ही अच्छी उर्दू और अंग्रेजी दोनों जानते थे। उनमें सईद ज़ाफरी का नाम सबसे ऊपर है। उनकी कर्कसी उर्दू ज़बान ही उनकी पहचान बनी थी। आशुतोष राणा के बाद पंकज त्रिपाठी पहले एक्टर हैं जो बहुत ही शुद्द हिन्दी के संवादों का इस्तेमाल करते हैं जो उनकी एक पहचान बनती जा रही है।
फ़िल्म वासेपुर से पंकज त्रिपाठी को लोगों ने सराहना शुरू किया था। उसके बाद ही उनकी पहचान बननी शुरू हुई थी। उसमें उनकी भाषा पर ध्यान दें तो वो बिहार के गांव देहातों में बोली जाने वाली भोजपुरी मिक्स हिन्दी का इस्तेमाल उन्होंने किया है। उनकी एक और फ़िल्म मसान जिसमें उनका किरदार काफी पसंद किया गया था। उसमें भी पंकज ने शुद्ध हिन्दी का इस्तेमाल किया था। इसके अलावा सेक्रेड गेम में ‘अहम ब्रह्मसमी’ एकदम संस्कृत सहित शुद्ध हिन्दी का इस्तेमाल किया था। उनकी सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध सीरीज मिर्जापुर में भी उन्होंने शुद्द हिन्दी का इस्तेमाल किया है। उनका संवाद ‘विशुद्ध चूतिये हो तुम’ काफी प्रसिद्ध भी हुआ था।
उनकी भाषा में जो भोजपुरी टच है। वो उनकी पहली फ़िल्म रन में भी मिलता है और वासेपुर में भी मिलता है। मिर्जापुर में भी मिलता है और स्त्री में भी मिलता है। उनकी ज़्यादतर फ़िल्मों में या सीरीज़ में उनकी भाषा ही है जो उनके संवादों में चमक पैदा कर देती है। उनकी भाषा ही उनकी पहचान बनती जा रही है।