सात कदम इरोस नाउ पर 4 एपिसोड की सीरीज जो फुटबाल के खेल पर आधारित है। ‘फुटबॉल पैरों का खेल है मगर दिमाग से खेला जाता है’ इस सीरीज का ये मुख्य डॉयलॉग है जो रोनित रॉय के जरिए बोला जाता है। इस डॉयलॉग के इर्द-गिर्द ही सारी सीरीज की कहानी गढ़ी गई है। कहानी बंगाल के एक छोटे से कस्बे आसनसोल में चल रही है। इसलिए सीरीज में कुछ बंगाली के शब्द वहां भी सुनने को मिलते रहेंगे जहां उनकी जरूरत नहीं है। निर्देशक हर सीन में बंगाल का कल्चर दिखाकर बताने की कोशिश करेगा कि सीरीज की कहानी बंगाल की है इसे किसी हिन्दी क्षेत्र की ना समझा जाये।
कहानी में एक बूढ़ा आदमी अरबिंदो (रोनित रॉय) है, जिसका एक पैर टूटा हुआ है जो कभी फुटबाल खेलते में टूटा था। यह बात अलग है कि किसी भी सीन में रोनित रॉय को फुटबॉल खेलता नहीं देख पायेंगे। अरबिंदों किसी जमाने में बहुत बड़े प्लेयर थे। वह नेशनल टीम में खेलना चाहते थे। वह कभी नहीं खेल पाये। इसी दुख में रोज रात को अकेले कमरे में बैठकर दारू पीते हैं। वह अपने बेटे रवि को अपनी पत्नी से छिपाकर कोचिंग भी देते हैं।
एक दिन अरबिंदो का दोस्त उसे आसन सोल क्रिकेट क्लब जो कि बहुत ही छोटा क्लब है। उसकी कोचिंग का ऑफर देता है। अरबिंदो अपने बेटे रवि के साथ आसनसोल क्लब को कोचिंग देता है। कोचिंग की चर्चा आम हो जाती है। मैच होने से पहले टी.वी पर उसकी शोहरत हो जाती है।
कोलकत्ता बागान जो कि इंडियन लीग की सबसे मंहगी और बड़ी टीम है। कोलकाता बागान क्लब का मालिक बनर्जी अरबिंदो का वो दोस्त है जो अरबिंदों को बरबाद कर देना चाहता है। उसकी बेटी रवि अमित साध से प्यार भी करने लगती है। बनर्जी रवि को लीग शुरू होने से पहले ही खरीद लेता है। वह उसे अपनी टीम से खिलाता है। इस पर बाप बेटों के बीच दरार पड़ जाती है। यहां एक नई बात और पता चलती है कि रवि अरबिंदों का सगा बेटा नहीं है। उसने तो सिर्फ उसे पाला है।
फाइनल में एक तरफ आसनसोल क्लब है जिसका कोच अरबिंदों है। दूसरी तरफ कोलकाता बागान है जिसमें रवि है। स्क्रीन पर एक भी मैच दिखाए बिना निर्देशक रवि की टीम कोलकाता बागान को जिताने के साथ अंत कर देता है।
सिनेमा की नज़र से
देखें तो साफ नज़र आता है कि एक फ़िल्म को चार भागो में काटा गया है। उन्हीं चार भागों को बिना किसी रद्दोबदल के सीरीज का नाम दे दिया गया है। यह चार एपिसोड की सीरीज वैसे तो फुटबॉल को लेकर है लेकिन कमाल की बात है कि फुटबाल का उसमें सिर्फ दो मिनट का एक सीन है जिसमें बस पैनल्टी गोल हो रहा है। उसी गोल पर सीरीज का अंत होता है।
फुटबॉल के खेल पर आधारित सीरीज में सिर्फ ड्रामा है जो कभी भी मैलोड्रामा हो जाता है। इस कदर हो जाता है कि खेल की जगह पूरी सीरीज में रोना-धोना और कहानी कहीं भी कभी भी इमोशनल हो जाती है। उसमें एक लव स्टोरी भी है जिसका छोर किसी को भी हाथ नहीं आता कि वो कहां से शुरू हुई थी। अचानक एक लड़की आती है और एक लड़के को बोलती है कि वो उस से प्यार करती है।
इस सीरीज की दूसरी वीक बात है कि इसमें इतने सारे किरदार है कि सब के सब इमोशनल करने में लगे हुए हैं। किसी भी किरदार को ना सही से लिखा गया है और ना ही सही है दिखाया गया है। सीरीज क्योकि बंगाल में है तो निर्देशक ने बंगाल के कल्चर को तरजीह देते हुए एक अच्छा सेट बनाया है। एक तरफ बंगाल का लोकगीत बाऊल चल रहा है और दूसरी तरफ लोग मिष्ठी खाने की बात कर रहे हैं। तीसरी फ़िल्म की नायिका अपने हर डॉयलॉग के बाद गला पकड़कर सुत्ती बोल रही है। यह बात और है कि सुत्ती के सिवा और कोई शब्द बंगला का नहीं बोल रही है।
रोनित रॉय को छोड़कर किसी भी एक्टर ने एक्टिंग में उतना दम खम नहीं दिखाया है। रोनित रॉय ने जितना भी किरदार निभाया फिर भी एक्टिंग के दायरे में निभाया है। इसमें सबसे बडी कमी निर्देशक की नज़र आती है। उसे मालूम ही नहीं होता कि कहानी में उसे दिखाना क्या है। कहानी पहले ही एपिसोड में उसकी पकड़ से छूट जाती है। सीरीज के गाने थोड़ी राहत जरूर पहुंचाते हैं।
देखें ना देखें?
सीरीज में रोनित रॉय और अमित साध दो बड़े कलाकार हैं। इनके सहारे सीरीज को बहुत खींचा गया है। इन दोनों ने ही बहुत कोशिश भी की है कि सीरीज में इंटरेस्ट पैदा किया जाये। सीरीज की सबसे बड़ी कमी खेल का ना होना है। सीरीज में खेल का कोई सीन ही नहीं है। देखने वााला चार एपिसोड तक फुटबॉल के मैच का इंतजार ही करता रहता है। अंत तक लेकिन कोई मैच नहीं होता है। अंत में होता है बस एक गोल। इमोशनल ड्रामा अच्छा है। इमोशनल ड्रामा अगर देखना है तो सीरीज आपको रूला देगी।
निर्देशक: मोहित झा
कलाकार: रोनित रॉय, अमित साध, दीक्षा सेठ।
प्लेटफार्म: इरोस नाउ